Thursday, May 13, 2010

kala ki vyakhya

कला का सम्मान हम सभी उत्साहित होकर करते आये हैं.कला का व्यापक विस्तार हो इसके लिए प्रकृति ने पचुर maatra मे जगह दी है,पर आज कल ये फ़ैलाने के बदले सिकुड़ता नज़र आ रह है.ये महसूसा ही नही, नंगी आंखों से देखा जा सकता है, कुठाराघात को
हम सब ने मिलकर सहा है, झेला है,और अब बदलते परिवेश को ही पावन पवित्र , मानने कि परिकल्पना हो रही है.मुल्याहीं को अमूल्य मन जा रह है,हम एक अस्थान पर ही कूद-कूद कर थक गए,जबकि एससी उर्जा मे मीलों का सफ़र तय किया जा सकता था.

सुना है कला के महाताव्पूर्ण उपासक स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान फमौस सहनाई वादक अपने घर मे माँ सरस्वती का फोटो ना बल्कि सजावट के लिए रखा बल्कि रोज पूजा भी किया करते थे रियाज़ से पूर्व.जबकि मुस्लिम परिवार मे मूर्ति पूजा कि मनाही है.शहनाई का ये शहंशाह भी एक अव्वल दर्ज का कलाकार ही था.मगर एसके दिल मे सर्वास्ती का जो सम्मान था वो नग्न था. माँ सरस्वती नग्न नही थी .

ऐसे ही कई मुस्लिम कलाकार सफलता के सर्वोच्च शिखर पर पहुचे सबों ने सरस्वती को
साड़ी मे ही सम्मान दिया,भरपूर सम्मान देने कि गरज से कभी माँ का साड़ी नही उत्तरा.बल्कि माँ के नंगे पाव को पूजा के बहाने फूलों से ढाका. मेरा मानना है पाव को धक् कर उनलोगों ने जिस शिखर पर पहुच कर तबला,सारंगी,बजाया उस शिखर कि कल्पना एस तुत्पुज्जिये कलाकार के बस कि नही.

ये ८०-९० का बुध मकबूल फ़िदा हुस्सिं.घोर बनाते-बनाते,माधुरी दिक्षित् पर फ़िदा हुआ समूचा कोउन्त्र्य हिहियता रह उसके घोर कि तरह,जबकि लगाम कि जरूरत ही.ताली से हिम्मत मे बढोतरी महंगाई कि तरह होती है सो हुई. माँ सरस्वती को अपनी सस्ती लोकप्रियता केलियेनंगा कर दिया,समर्थन मे हिंदु मुस्लिम सभी कलाकार,और नए मे आधुनिकता का दंभ भरने वाले सभी वर्ग के हिंदु से कला और स्वतंत्रता कि दुहाई देकर मकबूल के नाज नाच मे धर्म निरपेक्षता का मुसिक दिया.

अब भारतीय सहिसुनता को भाप कर,हिंदु कलाकार भारत माता कि साड़ी उत्तर कर अपनी लोकप्रियता का झंडा बाना लिया.पब्लिक विरोध किया,विरोध के विरोध मे कलाकार को भरपूर समर्थन मिल,ताजुब कि बात है उस हंगामे मे लडकी भी नग्न चित्रों के समर्थन मे खुद वेल्ल द्रेस्सेद थी. जबकि नग्नता का समर्थन नग्न होकर किया जता तो, असरकारक हो जता ,तार्किक होता, उचित होता.

तिरंगा झंडा का एक भी कलोर उल्टा- पलती हो जाये तो बबाल मच जता है,ओफ्फिसर सुस्पेंद हो जाते हैं,क्यों ? क्योंकि इससे हमने बड़मिजी से जोड़ कर देखना शुरू कर दिया है.देश कि भावना से पहले ही लिखित रूप मे जोड़ दिया है.अब कोई नही कह सकता कि मेरे अन्दर एक भावना आयी कि केशरिया को निचे या बीच के करके,हरा को उप्पेर या व्हिते को निचे करके अशोक चक्र को किसी कोने मे बैठा कर अपने कला कि भावना को सर्व विदित किया जाये.है किसी मे हिम्मत ? नही !हम मे से कोई नही कर सकता क्योंकि जहाँ पिटे जाने का खतरा हो हाथ नही डालना पसंद है.

भारत माँ भी कल्पना है,उनको भी फोटो मे साड़ी पहनाने वाला कलाकार ही था,उसके दिल मे भी सार्थक भावनाओ का समुद्र रह होगा.तुम होते कौन हो हमारी भावनाओ से टेस्ट मैच खेलने वाले ?

थूक है तुम्हारी विकृत मानसिकता पर,तुम्हारी कला भावना पर,तुम्हारी सस्ती लोकप्रियता पर,वे शर्मी कि हद हो गई.अपनी माँ का बलात्कार कराने चला है.

तुमरे विरोध मे धरना प्रदर्शन भी बेकार है.तुम जैसे मान मर्दन को आतुर कलाकार से तुम्हारी मानसिकता वाले २ मिनुतेस मे तुहे अपनी भावनाओं का बोध करा सकते है.तुम भारत माँ, सरस्वती माँ को पुरे हिंदु कि माँ मानते हो ना इसलिये तेरा ब्रुश एक आकार देता है.ऐसे मे तेरी माँ-बहन का सिर्फ चेहरा लिया जाये और तेरे ही बनाए पेंटिंग्स मे नग्न माँ के मुगलगार्डन से लगा दिया जाये तब भी तुम इससे कला कि भावनाओ का सम्मान ही कहोगे ? अगर हां तो तुम्हे “पदम श्री”मिलनी चाहिऐ.

भगवन ना करे वो दिन आये लेकिन तुम्हे भी सावधानी रखनी होगी अपनी भावनाओ
कि राजधानी मे.नग्नता अगर कला है तो कलाकार कौन नही हो सकता है ?.कला को अपने
हिसाब से परिभाषा मत दो.आवरण देना कला है आवरण उतारना कला नही हो सकता.
चीर हरण कराने वाले दुशाशन ! कृशन कभी भी पैदा हो

Wednesday, May 12, 2010

Eighteen Chapters of Shrimad Bhagwat Geeta

१-अर्जुनविषादयोग
इस अध्याय में अर्जुन द्वारा अपने सम्बंधियों को युद्ध में शत्रु दल में अपने सामने खड़ा देख युद्ध से विमुख हो जाने का वर्णन है, जब श्रीकृष्ण अर्जुन के कहने पर रथ को दोनों सेनाओं के बीच में ले जाते है, तो वहाँ अपने पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कृपाचार्य तथा अन्य मित्रों तथा भाईयों को देखकर उसका मन विचलित हो जाता है और वह युद्ध से विमुख होकर रथ के पिछले भाग में जाकर बेठ जाता है।
२-सांख्ययोग
३-कर्मयोग
४-ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
५-कर्मसंन्यासयोग
६-आत्मसंयमयोग
७-ज्ञानविज्ञानयोग
८-अक्षरब्रह्मयोग
९-राजविद्याराजगुह्ययोग
१०-विभूतियोग
११-विश्वरूपदर्शनयोग
१२-भक्तियोग
१३-क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग
१४-गुणत्रयविभागयोग
१५-पुरुषोत्तमयोग
१६-दैवासुरसम्पद्विभागयोग
१७-श्रद्धात्रयविभागयोग
१८-मोक्षसंन्यासयोग
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।

पानी गये न ऊबरै, मोती मानस चून।
ओ। मेरे भैया पानी दो। पानी दो
पानी दो गुड़धानी दो, जलती है धरती पानी दो,
मरती है धरती पानी दो, मेरे भैया पानी, दो।

अंकुर फूटे रेत मां, सोना बरसे खेत मां,
बेल पियासा, भूखी गैया, फुदके न अँगना सोनचिरैया,
फसल बुवैया की उठे मड़ैया, मिट्टी को चूनर धानी दो।
ओ मेरे भैया। ओ मेरे भैया ........(नीरज)

Monday, May 10, 2010

AHINSAM SUKTAM

अनुमंता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी ।
संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकश्चेति घातका: ॥

अर्थ - अनुमति = मारने की आज्ञा देने, मांस के काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, मांस के पकाने, परोसने और खाने वाले - ये आठों प्रकार के मनुष्य घातक, हिंसक अर्थात् ये सब एक समान पापी हैं ।

SANANAM SUKTAM

तैलक्षौमे चिताधूमे मिथुने क्षौरकर्मणि ।
तावद्भवति चांडाल: यावद् स्नानं न समाचरेत ॥

अर्थ - तेल-मालिश के उपरांत, चिता के धूंऐं में रहने के बाद, मिथुन (संभोग) के बाद और केश-मुंडन के पश्चात - व्यक्ति तब तक चांडाल (अपवित्र) रहता है जब तक स्नान नहीं कर लेता - मतलब इन कामों के बाद नहाना जरूरी है ।

BHOJAN SUKTAM

नोच्छिष्ठं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याचैव तथान्तरा ।
न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्ट: क्वचिद् व्रजेत् ॥

न किसी को अपना जूंठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच आप खावे, न अधिक भोजन करे और न भोजन किये पश्चात हाथ-मुंह धोये बिना कहीं इधर-उधर जाये ।

SHATRUNASHAK

नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु ।
गूहेत्कूर्म इवांगानि रक्षेद्विवरमात्मन: ॥
वकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्पतेत् ॥

कोई शत्रु अपने छिद्र (निर्बलता) को न जान सके और स्वयं शत्रु के छिद्रों को जानता रहे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है, वैसे ही शत्रु के प्रवेश करने के छिद्र को गुप्त रक्खे । जैसे बगुला ध्यानमग्न होकर मछली पकड़ने को ताकता है, वैसे अर्थसंग्रह का विचार किया करे, शस्त्र और बल की वृद्धि कर के शत्रु को जीतने के लिए सिंह के समान पराक्रम करे । चीते के समान छिप कर शत्रुओं को पकड़े और समीप से आये बलवान शत्रुओं से शश (खरगोश) के समान दूर भाग जाये और बाद में उनको छल से पकड़े ।

DHARM KE LAKSHAN

धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध ) )

MANU SAMRITI

भारत में वेदों के उपरान्त सर्वाधिक मान्यता और प्रचलन ‘मनुस्मृति’ का ही है। इसमें चारों वर्णों, चारों आश्रमों, सोलह संस्कारों तथा सृष्टि उत्पत्ति के अतिरिक्त राज्य की व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, भांति-भांति के विवादों, सेना का प्रबन्ध आदि उन सभी विषयों पर परामर्श दिया गया है जो कि मानव मात्र के जिवन में घटित होने सम्भव हैं यह सब धर्म-व्यवस्था वेद पर आधारित है। मनु महाराज के जीवन और उनके रचनाकाल के विषय में इतिहास-पुराण स्पष्ट नहीं हैं। तथापि सभी एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि मनु आदिपुरुष थे और उनका यह शास्त्र आदिःशास्त्र है। क्योंकि मनु की समस्त मान्यताएँ सत्य होने के साथ-साथ देश, काल तथा जाति बन्धनों से रहित हैं।

MANU SAMRITI : meaning .

Smritis mean "that which has to be remembered". Unlike the Vedas which are considered of divine origin, the Smritis are of human composition which guide individuals in their daily conduct according to time and place. They list the codes and rules governing the actions of the individual, the community, society, and the nation. They are also called Dharma Sastras or laws of righteous conduct.
Manu is considered a law giver in the Hindu tradition. Manu Smriti is one of the 18 Smritis. It is important to note that laws given by Manu, in Manu Smriti although followed in some form even today, are not considered divine, and may be modified by the society to keep up with the times. Indeed, it has been speculated that in its current form, Manu Smriti represents laws that have been added or modified throughout the history.

history of library

The literary treasures of ancient India in Sanskrit and other Indian languages were written by hand on various materials such as palm-leaves, paper etc., They were preserved in the houses of Pandits and other Scholars. In private possession and also in public Institutions like Mutts, temples and last but not least, in the Palaces of Kings who were patrons of arts and letters. Without exception, all kings had their manuscript collections in their Library called Sarasvati Bhandara, which varied from one another only in respect of size. One such collection is what formed the subject of this article, the Sarasvati Mahal, in the Palace at Tanjore in Tamilnadu.
During the reign of Nayaks of Thanjavur (1535-1675 A.D.), "Sarasvati Bhandar"(Collection place of Manuscripts) was formed and developed. The Maratha rulers who captured Thanjavur in 1675 A.D. patronised the culture of Thanjavur and developed the Royal Palace Library till 1855 A.D. The Sarasvati Bhandar was situated within the Palace campus and the Manuscripts used for the purpose of reading by the Royal personages.
Among the Maratha Kings, King Serfoji II (1798-1832), was an eminent scholar in many branches of learning. In his early age, he studied under the influence of Rev. Schwartz, and learned English, French, Italy, Latin etc., and also interested in Arts, Science, and Literature. With great enthusiasm he took special steps for the enrichment of the Library. During his pilgrimage to Banares, he employed many Pandits to collect, buy and copy a vast number of works from all renowned Centres of Sanskrit learning in the North and other far-flung areas. It is a fitting tribute to the great collector Serfoji that the Library is named after him